विकास के सिद्धांत और प्रभावित करने वाले कारक
दोस्तों शिक्षक पात्रता परीक्षा में वृद्धि और विकास के संबंध में कई प्रश्न आते हैं तथा विकास के सिद्धांत पर पूर्व परीक्षाओं में कई बार प्रश्न पूछे जा चुके हैं। इसलिए हम इस लेख में आपको विकास के सिद्धांतों की विस्तृत जानकारी दे रहे हैं।
विकास के सिद्धान्त (Principles Of Development)
निरंतर विकास का सिद्धांत (Principle Of Continuous Growth)
निरंतर विकास का सिद्धांत हमें बताता है कि विकास की प्रक्रिया निरंतर जीवन प्रयत्न चलती है लेकिन इसकी गति एक समान नहीं होती बल्कि विकास की विभिन्न अवस्थाओं में यह बदलती रहती है।
विकास के विभिन्न गति का सिद्धांत (priciple of different rate of growth)
डग्लस एवं हालैंड का इस संबंध में कहना है कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में विकास की गति भिन्न-भिन्न पाई जाती है तथा यह भिन्नता विकास के संपूर्ण समय में इसी भांति से चलती रहती है। जिस व्यक्ति के जन्म के समय लंबाई अधिक होती है, वह व्यक्ति बड़ा होने पर भी लंबा होता है और जो छोटा होता है वह साधारणतया छोटा ही रहता है।
विकास क्रम का सिद्धांत (principle of development sequence)
विकास क्रम का सिद्धांत बताता है कि भारत में विकास का क्रम किस प्रकार होता है यह से बालक का रोना आया उसमें भाषा के विभिन्न स्तर का विकास होना इस सिद्धांत से पता चलता है।
एकीकरण का सिद्धान्त (principle of integration)
इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले स्थूल रूप से संपूर्ण शरीर को चलाना सीखता है। तत्पश्चात वह शरीर के अंगों को चलाना सीखता है। इस तरह वह शरीर के भागों में एकीकरण करता है। जैेसे – बालक पहले पूरे हाथ को फिर उंगलियों को और फिर हाथ एवं उंगलियों को एक साथ चलाना सीखता है।
विकास की दिशा का सिद्धांत (principle of development direction)
इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास सिर से पैर की ओर होता है । इसे मस्तकाघोमुखी विकास कहा जाता हैं। इसमें पहले शिशु का सिर उसके पश्चात धड़ और इसके पश्चात हाथ पैर का विकास होता है।
समान प्रतिमान का सिद्धांत (Principle of uniform pattern)
इस सिद्धान्त के अनुसार हरलॉक महोदय ने कहा है कि
“प्रत्येक जाति चाहे वह पशु जाती हो या मानव जाति अपने जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है”
वैयक्तिक विभिन्नताओं का सिद्धांत (priciple of individual differences)
इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक बालक और बालिका के विकास का अपना स्वयं का स्वरूप होता है तथा अन्य विकास की दर भिन्न हो सकती है। जैसे एक ही आयु के दो बालकों और दो बालिकाओं के शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक विकास में विभिन्नता पाई जाती है।
परस्पर संबंध का सिद्धांत (Priciple of interrelation)
परस्पर संबंध के सिद्धांत के अनुसार बालक के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक आदि विकास के पहलुओं में परस्पर सम्बन्ध होता है। जैसे किसी बालक के आंतरिक एवं बाय अंगों में वृद्धि होती है तो फलस्वरूप उसके कार्य क्षमता में भी वृद्धि होती है।
वंशानुक्रम और वातावरण की अन्तः क्रिया का सिद्धांत (Principles of interaction of heredity and environment)
इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास न केवल वंशानुक्रम के कारण और ना ही केवल पर्यावरण के कारण होता है।बल्कि यह दोनों की अंतः क्रिया के कारण होता है।
सामान्य और विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत (Principle of general and specific response)
इस सिद्धांत के अनुसार बालक विकास क्रम में सामान्य से विशिष्ट की ओर आगे बढ़ता है जैसे प्रारंभ में बे सरल शब्दों का प्रयोग करता है लेकिन धीरे-धीरे हुए वस्तु को उचित नाम से पुकारने लगता है।
उम्मीद है आप विकास के सिद्धांतों को भली-भांति समझ चुके हैं इसके अलावा विभन्न TET परीक्षाओं जैसे CTET, MPTET, UPTET, REET आदि परीक्षाओं में वृद्धि और विकास को प्रभावित करने वाले कारकों के संबंध में भी पूछा जा सकता है इसलिए आइए इनके बारे में भी जानते हैं।
वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने वाले कारक / तत्व :-
1. वंशानुक्रम (Genetic)
बालक का विकास वंशानुक्रम से प्राप्त गुण एवं क्षमताओं पर निर्भर रहता है। बालक के कद, आकृति, चरित्र, बुद्धि आदि को वंशानुक्रम संबंधी विशेषताएं प्रभावित करती है।
2. वातावरण (Environment)
वातावरण से तात्पर्य बालक की भौतिक एवं सामाजिक वातावरण से है। वातावरण बालक के विकास को प्रभावित करने वाला महत्वपूर्ण तत्व है। अच्छा वातावरण मिलने पर बालक का उचित रूप से विकास संभव है।
3. पोषण (Nutrition)
बालक के सामान्य विकास के लिए पौष्टिक आहार की आवश्यकता होती है, उचित शारीरिक विकास के लिए आयोडीन, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, कैल्शियम तथा विटामिन आदी बहुत आवश्यक हैं इनके अभाव में बच्चे अस्वस्थ हो जाते हैं। बाल अवस्था में उचित पोस्टिक आहार न प्राप्त होने से व्यक्तित्व विकास पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
4. खेल एवं व्यायाम (Sports and exercise)
कहा जाता है स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क से विकास करता है और नियमित खेल एवं शारीरिक विकास में सहायता मिलती है, इससे सभी शारीरिक संस्थान ठीक प्रकार से कार्यरत रहते हैं तथा शरीर स्वस्थ रहता है
5. व्यक्तिगत विभिन्नता (Personal variation)
विकासात्मक प्रगति में व्यक्तिगत विभिन्नता देखी जाती है। तीव्र बुद्धि के बालक का बौद्धिक विकास तीव्र गति से तथा मंद बुद्धि बालक का अपेक्षाकृत मंद गति से होता है।
6. बुद्धि (Intelligence)
मनोविज्ञान अपने अध्ययनों के आधार पर निश्चित किया है कि कुशाग्र और उच्च बुद्धि क्षमता वाले छात्रों का मानसिक एवं शारीरिक विकास मंद बुद्धि वाले छात्रों की तुलना में तेज गति से होता है। कुशाग्र बुद्धि वाले बालक मंद बुद्धि वाले बालक की अपेक्षा शीघ्र बोलने व चलने लगते हैं।
7. आयु (Age)
जैसे-जैसे आयु बढ़ती है बालक में कई शारिरिक और मानसिक परिवर्तन होते हैं विकास की अलग अलग अवस्थाओं में इनकी विकास दर अलग अलग होती है। बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था आयु वर्गों में आयु वृद्धि के साथ साथ शारीरिक विकास की गति एवं इसके स्वरूप में कई परिवर्तित होते हैं।
8. संस्कृति (Culture)
बालक के विकास पर संस्कृति भी प्रभाव डालती है अलग अलग मान्यताओं का असर बालक के व्यक्तित्व पर देखा जा सकता है।
9. प्रजाति (Race)
युंग ने भी प्रजातीत प्रभाव को बालक के विकास में महत्वपूर्ण बताया है। गर्म जलवायु में रहने वाले बालकों का शारीरिक विकास ठंडे जलवायु में रहने वाले बालकों की अपेक्षा शीघ्र होता है। जैसे नीग्रो बच्चे, शवेत बच्चों की अपेक्षा 80% परिपक्व अधिक होते हैं।
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